Physics in Ancient India
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द्रव्य


पृथ्वी, अप्, वायु (Solid, Liquid, Gas)
पारिभाषिक रूप में द्रव्य वे हैं जिनमें गुण निहित होते हैं। प्रथमतया हम आधारभूत पाँच भौतिक राशियों (पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, और आकाश) को आधुनिक विचारकों की विचार पद्धति से समझने का प्रयास करेंगे। इनके विशिष्ट गुण क्रमश: गंध (smell), रस (taste), रूप (colour), स्पर्श (temperature), और शब्द वृत्ति (wave-acoustical) हैं, जिनको इन्द्रियों-नाक, रसना, आँख, त्वचा और कान द्वारा अनुभूत किया जाता है। भौतिकी के ठोस, द्रव और गैस को प्रयुक्त अर्थ से पृथक् करने के उद्देश्य से वैशेषिक दर्शन में उन्हें क्रमश: आदर्श ठोस, आदर्श द्रव और आदर्श गैस कहेंगे।
यह पूर्व में ही बतलाया गया है कि द्रव्य वे हैं जिनमें गुण रहते हों। उसी कथन के अनुसार यहाँ यह समझना चाहिये कि, वैशेषिक के ठोस-पृथ्वी, द्रव-अप्, ऊर्जा-तेज, और गैस-वायु में गंध, रस, रूप और स्पर्श गुण विद्यमान रहते हैं, परन्तु इन गुणों में एक-एक गुण के ह्रास होकर आदर्श द्रव में तीन ही गुण (रूप, रस, स्पर्श) रहते हैं, तथैव आदर्श तेज में दो ही गुण (रूप, स्पर्श) और आदर्श वायु (गैस) में केवल एक गुण 'स्पर्श' विद्यमान रहता है।' 1
आकाश (plasma) नामक पांचवा द्रव्य प्रथम चार गुणों (गंध, रस, रूप एवं स्पर्श) से रहित रहता है। उसमें एक मात्र स्वतंत्र गुण शब्द-वृत्ति (wave-aspect) रहता है।
प्रकृत प्रसङ्ग में यह ध्यातव्य है कि पृथ्वी से लेकर वायु पर्यन्त 'स्पर्श' नामक गुण समान रूप से अनुस्यूत है। वैशेषिकों को 'शीत-उष्ण अनुष्माशीत' का ज्ञान करानें वाला गुण 'स्पर्श' पद से अभिमत है। इस हेतु दर्शन की प्रकृति के अनुसार 'स्पर्श' को तापमान का द्योतक पद मानना चाहिये। क्योंकि तापमान एक भौतिक राशि है जो ऊष्णता (hotness) या शीतलता (coldness) का अनुभव प्रदान करती है। वैशेषिक दर्शन में यत्र-तत्र प्रसङ्गानुसार जब भी कठोरता, मृदुता इत्यादि को व्यक्त किया जाता है तो 'स्पर्श' (अर्थात् छूने की क्रिया) पद के पूर्व 'विशेष' नामक पद आवश्यक रूप से लगाया जाता है। अर्थात् यह स्पष्ट हो जाता है कि 'वैशेषिक' आचार्यों को छूकर अनुभव करने की प्रक्रिया 'विशेष-स्पर्श' से अभिमत है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि 'वैशेषिक दर्शन' में प्रयुक्त 'स्पर्श' से 'विशेष-स्पर्श' अभिमत है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि 'वैशेषिक दर्शन' में प्रयुक्त 'स्पर्श' 2 शब्द तापमान का द्योतक है।
भौतिकी में तापमान के मापन हेतु गैसीय और ऊष्मा-गतिकीय (thermodyanmical) पैमाने हैं। वैशेषिक आचार्यों के अनुसार ये नाप, विशिष्ट-विमाओं (specific dimension) के हैं, क्योंकि एक गुण दूसरे गुण में समाहित नहीं हो सकता।
सामान्य ठोस का द्रव में परिवर्तन तेज से संयोग के कारण होता है, जिसकों नैमित्तिक परिवर्तन की परिकल्पना से समझा जा सकता है। 3
उपर्युक्त कथन इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि ठोस में द्रव अवस्था के संयोजन का कारण ऊर्जा (ऊष्मा) में द्रवत्व के गुण (गति) की उपस्थिति है। ऐसा मानने पर ऐसी आशंका व्यक्त की जा सकती है कि आदर्श गैस और ऊर्जा (ऊष्मा) का संयोग भी आदर्श द्रव का कारण बनेगा। ठोस (पृथ्वी) में 'गंध' नामक गुण रहता है, और द्रव और वायु में जो गंध का अनुभव होता है, उसमें कारण आदर्श ठोस की उपस्थिति होती है। वस्तुत: वैशेषिकों के मत में आदर्श द्रव और आदर्श गैस प्रकृति से गंधहीन ही होते हैं।
पूर्वोक्त कथन की विवेचना से यह संदेह उद्भुत होता है कि वायुमण्डलीय गैस के अतिरिक्त अन्य किसी गैस की उत्पादन विधि के ज्ञान पर ध्यान दिया जाता था अथवा नहीं? क्योंकि वैशेषिकों के उपलब्ध वाङ्मय में इस बात का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता। प्राचीन भारत में यह ज्ञात था कि प्रकृति में उपलब्ध जल, दो गैसों-प्राण वायु (oxygen) और उदान वायु (hydrogen) में विद्यटित होती है।
इस तथ्य के प्रमाण 'अगस्तय संहिता' के 'शिल्पशास्त्रम्' (technology) खण्ड में एक 'यान' के वर्णन में प्राप्त होते हैं। 4 प्रस्तुत प्रमाण की प्रथम चार पंक्तियों में एक वोल्टाइक सेल (voltaic cell) का वर्णन है, जहाँ 'मैत्र' विद्युतीय धनात्मक सिरे को तथा 'वरुण' विद्युतीय ऋणात्मक सिरे को इंगित करता है। पांचवी पंक्ति के अनुसार 'मैत्र' और 'वरुण' जल को प्राणवायु (oxygen) और उदानवायु (hydrogen) में विघटित कर देते हैं।
'प्राणवायु' का तात्पर्य जीवनाधायक गैस से है और 'उदानवायु' का अर्थ ऐसी गैस से है जो हवा से भी हल्की हो। ये दोनों नाम उनको क्रमश: ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के रूप में स्वयं सिद्ध करते हैं।
आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथाभिलेखों में अनेक प्रकार की गंधयुक्त गैसों का वर्णन है। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि 'वायु' और इसके पर्याय का उपयोग विभिन्न समकालीन ग्रंथाभिलेखों में किया गया है, जिससे बहुत से विवाद और भ्रान्तियाँ उत्पन्न हो गई हैं।
किसी तत्त्व के गंध परीक्षण हेतु हमको उस तत्त्व के चारों ओर व्याप्त हवा (वायु) में सांस लेनी पड़ती है। 5
वायु का विश्लेषण करते हुए अनेक विध वायु प्राप्त होती है। इनमें से कुछ गैसों में गंध होती है और कुछ गंधहीन होती हैं। जब गंधयुक्त गैसों के अणु श्वसनेन्द्रिय के सम्पर्क में आते हैं तो हमें गंध का अनुभव होता है। वस्तुत: गंधयुक्त अणु वायु के अणुओं के साथ संमिश्र होकर गंधयुक्त गैसों का मिश्रण बनाते हैं।
'द्रव' भी अवस्था परिवर्तन करता है। सर्वत्र व्याप्त जल, जो द्रव अवस्था का प्रतिनिधि है, समुद्र, तालाब इत्यादि से वाष्प बन वायु के साथ संमिश्रित (vapour) हो कर ऊँचाई पर पहुँच कर निम्न तापमान और दाब के कारण जल की बूँदों और बर्फ के मणिभों के रूप में घनीभूत होकर बादलों का निर्माण करता है।
अत: हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि ठोस, द्रव और गैस एक ही वस्तु की अवस्थाएँ हैं। 6 सैद्धान्तिक रूप से जैसा कि वैशेषिक मानते हैं, हम तीनों अवस्थाओं को आदर्श ठोस, आदर्श द्रव और आदर्श गैस के विभिन्न अवस्थाओं के रूप में निरूपित कर सकते हैं। परन्तु वास्तविकता यही है कि, एक ही वस्तु विभिन्न अवस्थाओं में प्रकट हो सकता है और सभी अवस्थाएँ नैमित्तिक ही होंगी। उपर्युक्त सैद्धान्तिक निष्कर्ष को अधोलिखित प्रयोग से प्रमाणित किया जा सकता है। उपर्युक्त अवस्थाओं में किसी भी अवस्था में स्थित वस्तु का भार (mass) तुला द्वारा ज्ञात किया, तदनन्तर मापित वस्तु की अवस्था में परिवर्तन किया गया। परिवर्तित वस्तु का पुन: भारमापन करने पर, पूर्व के तुलाभार में कोई भी परिवर्तन नहीं होता। यह वस्तु की अविनाशिता को प्रकट करता है। इसे ही आधुनिक भौतिकी में वस्तु के अविनाशिता का नियम (law of conservation of matter) कहा जाता है।
दार्शनिक दृष्टिकोण से हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि 'वैशेषिक' वस्तु की आदर्श अवस्थाओं को निरूपित करता है, जिसे आवश्यक संकल्पनाओं के साथ संशोधित करने पर वस्तु की वास्तविक अवस्थाओं को प्रतिबिम्बित करती है। ये विचार आदर्श और वास्तविक गैसों के आधुनिक दृष्टिकोण के सर्वथा अनुरूप है।
अणु, द्वैणुक और त्रसरेणु (Atom, Molecule and Smallest colloidal Particle) 7
वैशेषिकों के अनुसार परमाणु में गुण नहीं रहता। परन्तु जब यह दूसरे परमाणुओं से मिल कर द्वयणुक की संरचना करता है और पुन: जब ये द्वैणुक परस्पर सम्मिलित हो एक त्रसरेणु (trimolecule) का गठन करते हैं, तभी उनमें गुणों का अनुभव किया जा सकता है। 8
कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसा एक अणुक, जिसके मौलिक अंश द्वयणुक हैं सबसे छोटी इकाई त्रसरेणु (colloidal particle) कहलाता है। ये त्रसरेणु परस्पर संयोजित होकर बृहत् पिण्डों का निर्माण करते हैं, इस अवस्था में ही गुणों की प्रत्यक्षतया उपलब्धि होती है।
पीलुपाकवाद (Daltan's Theory of Chemical Reaction) 9
पाक-क्रिया के द्वारा गुणों में परिवर्तन हो जाता है, तत्पश्चात् उन परिवर्तित गुणों को सामान्य भौतिक प्रक्रिया द्वारा पुन: प्राप्त नहीं किया जा सकता। पाक-क्रिया द्वारा होने वाले परिवर्तन विशेष को, आधुनिक विज्ञान में रासायनिक परिवर्तन (chemical change) कहा जाता है।
वैशेषिकों के अनुसार द्वयणुक अवस्था तक गंध, रस, रूप, स्पर्श जैसे भौतिक गुणों में परिवर्तन नहीं होता। रासायनिक अभिक्रिया के काल में वस्तु की मूल संरचना उसके परमाणुओं में विखण्डित होती है, जो परस्पर नवीन पद्धति से व्यवस्थित होकर नूतन संरचना को जन्म देते हैं। ये नये रासायनिक वस्तु पाक प्रभाव से पूर्व गुणों को छोड़कर नवीन गुणों को प्राप्त करते हैं। पाक क्रिया में वस्तु के साथ ऊर्जा (तेज) का संयोग अतिआवश्यक है। रासायनिक अभिक्रिया में ये परमाणु, दूसरे नूतन गुणों से युक्त नये वस्तु की संरचना करते हैं।
पीलुपाक प्रक्रिया का तुलनात्मक विवेचन, डॉल्टन के सिद्धांत के साथ, सम्यक् प्रकार से किया जा सकता है। जिसे 'आवागाद्रों' (Avagadro's) ने स्वयं की परिकल्पना द्वारा संशोधित कर अधोलिखित प्रकार से प्रस्तुत किया है-
(i) वस्तु (तत्व और यौगिक) अणुओं से बनी होती हैं। अणु वे सूक्ष्मतम कण हैं जो पृथक्-पृथक् अस्तित्व रखने में सक्षम हैं। अणु अविभाज्य कणों से बने होते हैं, जो परमाणु (atom) कहलाते हैं।
(ii) एक वस्तु के अणु परस्पर समान होते हैं और उनके गुण और द्रव्यमान (mass) भी समान होते हैं। परन्तु एक वस्तु के अणु दूसरे वस्तु के अणुओं से सर्वथा भिन्न होते हैं।
(iii) एक तत्व (element) के अणु, परमाणुओं से बने होते हैं, जो पूर्णतया समान होते हैं, जब कि एक यौगिक के अणु भिन्न प्रकार के परमाणुओं से मिलकर बने होते हैं।
(iv) जब दो या दो से अधिक वस्तुओं के मध्य रासायनिक सम्मेलन होता है, तो प्रत्येक वस्तु के अणु पहले अपने परमाणु में पृथक् होते हैं, और पुन: परमाणु परस्पर मिलकर एक नये वस्तु के अणुओं की संरचना को उत्पन्न करते हैं।
वैशेषिक में टिन्डल प्रभाव 10 और परमाणु का आकार (Tyndal Effect in Vaiseshika and Size of the Atom)
महर्षि कणाद के अनुसार परमाणु स्वयं कोई गुण नहीं रखता, इस हेतु यह अनुभव अर्थात् प्रत्यक्ष योग्य नहीं है। सूक्ष्मतम कण जिसका अनुभव किया जा सकता है केवल त्रसरेणु ही होता है, क्योंकि इसी अवस्था में गुण (रूप, रस, गंध) अनुभूत किये जा सकते हैं। त्रसरेणु का ६० वां भाग परमाणु का क्रिया क्षेत्र प्रदान करता है। वैशेषिक का एक श्लोक है जो परमाणु के आकार की गणना प्रदान करती है।
उसके अनुसार सूक्ष्मतम रज कण (dust-particle) का ६० वाँ भाग जो सूर्य किरण पुंज में दिखाई देता है, एक परमाणु है। 11
टिन्डल प्रभाव के अनुसार एक अन्धेरे कक्ष में प्रकाश पुंज का प्रवेश धूल के कणों को प्रकाशित कर देता है जो कि वायु में तैरते हुए देखे जाते हैं। इसी प्रकार जब एक तीव्र प्रकाश पुंज को कोलाएडी विलयन पर केन्द्रित किया जाता है, तब पुंज का मार्ग नीले प्रकाश से प्रकाशित हो जाता है, और बगल से देखने पर दर्शनीय हो जाता है।
टिन्डल प्रभाव प्रदर्शित करता है कि कोलायडी कण (colloidal particle) का आकार ०.२ x १०-४से.मी. से १ x १०-७से.मी. तक होता है। लघुतम रज कण अर्थात् त्रसरेणु का साठवां भाग १ x १०-८से.मी. होगा। अर्थात् यह सिद्ध होता है कि वैशेषिक की गणना के आधार पर ज्ञात किये गये परमाणु के आकार की माप भौतिकी द्वारा ज्ञात माप (१ x १०-८) की सीमाओं में ही है। षष्ठ परिच्छेद में इसकी गणना की गई है जहाँ परमाणु का आकार =०.५ आंगस्ट्राम =०.५ x १०-८से.मी. है।
तेज (Energy) 12
नाभिकीय भौतिकी का विचार हमें उस प्रक्रम के सम्पर्क में ले आया है जिसमें द्रव्यमान (mass) बहुत अधिक मात्रा में ऊर्जा मुक्त करता है। इसके परिणाम स्वरूप आईन्स्टीन का अनुमान कि दीप्तिमान ऊर्जा (radiant energy) द्रव्यमान है, स्पष्टतया प्रमाणित होता है। वह चित्ताकर्षक प्रक्रम जिसमें १०० प्रतिशत द्रव्यमान (परमाणविक स्तर पर) वस्तु के कणों से विकिरण ऊर्जा में परिवर्तित होता है, हमें ज्ञात है।
अत: जब तक हम विकिरण को नियंत्रित नहीं करते, इस पर अनुसंधान नहीं किया जा सकता। परन्तु केवल नाभिकीय प्रयोगशालाओं और तारों के केन्द्रों में ऐसा परिवर्तन होता रहता है जिसमें द्रव्यमान की विचारपूर्ण मात्रा का परिवर्तन विकिरण के रूप में होता है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु के लिए हम द्रव्यमान के सूक्ष्म परिवर्तन को अनदेखा कर सकते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि प्रेक्षित द्रव्यमान का संरक्षण सामान्यत: वस्तु की मात्रा के संरक्षण के समतुल्य होता है। रासायनिक परिवर्तन में वस्तु की मात्रा आवश्यक रूप से पूर्व जैसी ही रहती है, अर्थात् उसमें कुछ परिवर्तन नहीं होता। यह प्रेक्षण (प्रयोग) कि रासायनिक परिवर्तन में वस्तु की मात्रा अपरिवर्तित रहती है, सुदृढतया स्पष्ट करता है कि रासायनिक परिवर्तन वस्तु के घटकों के पुनर्व्यवस्थापन की प्रक्रिया है।
आकाश (Plasma)
संस्कृत भाषा की शब्द 'आकाश' आङ् उपसर्ग पूर्वक 'कृश्' धातु से बना है। 'आकाश' का अर्थ ऐसी भौतिक राशि से है जो हर तरफ से चमकती रहती है। 13
आकाश को 'प्लाज्मा' नामक वस्तु की चतुर्थ अवस्था से परिभाषित किया जा सकता है। युगपत यह भी प्रत्यक्ष सिद्ध है कि वस्तु की यह अवस्था हमारे ग्रह सहित समस्त ब्रह्माण्ड में फैली हुयी है।
भौतिकी के अनुसार 'प्लाज्मा' आयनीकृत परमाणुओं और मुक्त इलेक्ट्रॉनों के साथ ही सम्पूर्ण परमाणुओं के कम या अधिक छिड़काव से युक्त और कभी-कभी गैसीय अणुओं से युक्त एक मिश्रण है। यह पूर्व से ही ज्ञात है कि जिसमें सर्वसामान्य प्राण की श्वसन क्रिया चलती है, उसके सहित अन्य गैसें हमेशा ही कुछ आयनीकृत परमाणु और मुक्त इलेक्ट्रान रखती है। प्लाज्मा के गुण गैसों से विलक्षण रूप से पृथक् होते हैं। पलाज्मा के परमाणु उत्तेजित अवस्था में रहते हैं, उनके मध्य निरन्तर इलेक्ट्रानों का आदान-प्रदान होता रहता है। आयन और इलेक्ट्रॉन अपनी अनियमित गति से निरन्तर परस्पर टकरा रहे हैं जो 'प्लाज्मा' के चमकनें का कारण है। 'प्लाज्मा' विद्युत का एक श्रेष्ठ 'वाहक' (conductor) है। 'प्लाज्मा' की शुद्धता आयनीकरण की दशा (degree) पर निर्भर करती है। रासायनिक अभिक्रियाओं की उच्चतम ताप सीमा ६००० से ८००० °K (डिग्री केल्विन) है। इस सीमा के ऊपर प्लाज्मा की वास्तविक अवस्था स्थापित होती है।
प्लाज्मा की अवस्था से ठोस अवस्था में परिवर्तित होने के प्रकार को अधोलिखित विवरण से समझा जा सकता है- वास्तविक प्लाज्मा वस्तु की पूर्णत: आयनीकृत अवस्था है जो अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा का विकिरण करते हुए निरन्तर परिवर्तित उत्तेजित अवस्थावाले गैस के परमाणुओं में परिवर्तित होती रहती है, वस्तु की यह उत्तेजित अवस्था अपनी समस्त ऊष्मा का व्यय करके आणविक अवस्था में परिवर्तित हो जाती है जिसकी परिणति एक गैस के रूप में होती है जो कि पृथ्वी की वायुमण्डलीय गैसों के समान होती है, अर्थात् आदर्श गैसों के समान व्यवहार करती हैं। वस्तु की यह अवस्था विद्युतीय रूप से उदासीन आदर्श गैस की होती है। इस अवस्था में वस्तु के पास कार्य ऊर्जा होती है जो दाब और तापमान परिवर्तन के अधीन होती है। जिसके कारण वस्तु की इस कार्य ऊर्जा (ऊष्मा) का ह्रास होकर द्रव अवस्था परिवर्तन होता है। तत्पश्चात् द्रव तुलनात्मक रूप से निरन्तर कम ऊष्मा का व्यय करते हुए, एक ऐसी अवस्था को प्राप्त होता है जहाँ वह दृढ (कठोर) हो जाता है, जहाँ वह स्वयं गति से हीन हो जाता है।
प्रत्यक्षत: यह प्लाज्मा, गैस, विकिरण तेज, द्रव तथा ठोस के रूप में 14 अवस्था परिवर्तन का क्रम प्रदान करता है। इस क्रम का 'तैत्तिरीयोपनिषद्' के प्रसङ्ग के साथ सम्यक् विवेचन किया जा सकता है।
उपर्युक्त अवस्था परिवर्तन की प्रक्रिया का निर्देश वैशेषिक के आचार्यों ने अधोलिखित प्रकार से किया है- 15
आत्मा तथा परमाणुओं के कार्योत्पादक संयोगों से वायु द्रव्य के परमाणुओं में उत्पादक क्रिया उत्पन्न होने पर उन वायु परमाणुओं के परस्पर संयोगों से द्रव्य गुण त्र्यणुक इत्यादि अवयवी द्रव्य के क्रम से, विशाल वायु नामक द्रव्य उत्पन्न होकर आकाश में अत्यन्त कम्पित अवस्था में रहता है। इसके पश्चात् उसी कार्यरूप वायु में जलीय परमाणुओं से वायु उत्पत्ति के क्रम से विशाल जल नामक द्रव्य उत्पन्न होकर सर्वत्र प्रवाह रूप में बहता रहता है। उस जल रूप महाद्रव्य से पार्थिव परमाणुओं से द्वयणुक आदि अवयवी द्रव्य की उत्पत्ति के क्रम से तेजो द्रव्य का महान् राशि उत्पन्न होता है।
अत: पूर्वोक्त विवरण का विशद विवेचन करने के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाता है कि वैशेषिकों के 'भूत' (matter) की कोई भी अवस्था अनुकूल परिस्थितियों में अन्यान्य अवस्थाओं में परिवर्तित की जा सकती है, इनका अनुभव भी किया जा सकता है। यह स्थिति आधुनिक भौतिकी के अनुरूप ही है। वैशेषिकों का 'महाभूत' और सांख्यदार्शनिकों की तन्मात्राऍं परस्पर सापेक्ष अर्थशाली है, जो वस्तु की आदर्श अवस्थाएँ हैं।
भूत, दिक्, काल(The Fundamental Physical Quantities -Mass, Length, Time)
किसी भी अवस्था के भूत के साथ छठा द्रव्य 'दिक्' और सातवाँ द्रव्य 'काल' का सांयोगिक संबन्ध रहता है। ये दोनों वस्तु विभु अर्थात् सर्वत्र व्याप्त है। अत: भूत, दिक्, और काल आधुनिक भौतिकी के अनुरूप ही आधारभूत भौतिक राशियाँ हैं। क्योंकि भौतिकी मापन का विज्ञान है, ये राशियाँ क्रमश: द्रव्यमान (mass) लम्बाई (length), और समय (काल) (time) हुई, जहाँ द्रव्यमान और समय अदिश (scaler) है, जबकि लम्बाई एक सदिश (vector) है। तालिका रूप में वैशेषिक 'द्रव्य' एवं भौतिक राशियों की तुलना एवं उपर्युक्त विवेचन का तत्वात्मक तथ्य अगामी तालिका के माध्यम से प्रदर्शित कर सकते हैं-


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References
1
महर्षि कणाद्, वैशेषिक सूत्र, २/१/१-५, (६०० ई. पू.),
"रूपरसगंधस्पर्शवती पृथ्वी।
रूपरसस्पर्शवत्य आपो द्रवा: स्निग्धा:।।
तेजोरूप स्पर्शवत् स्पर्शवान् वायु:।
त आकाशे न विद्यन्ते।।
शब्दोऽम्बर गुण:।।"
2
डॉ० नारायण गोपाल डोंगरे,
वैशेषिक सिद्धान्तानां गणितीय पद्धत्या विमर्श: (१९९५),
"स्पर्श स्त्रिविध: शीतोष्णानुष्णाशीत इति
भदोत्-काठिन्यादि तु विशेष स्पर्श:।"-(तर्क संग्रह)
3
महर्षि कणाद्, वैशेषिक सूत्र, २/१/७, (६०० ई. पू.),
"त्रपुसीसलोहरजतसुवर्णानामग्निसंयोगाद् द्रवत्वमद्भि: सामान्यम्।।"
4
अगस्त्य संहिता, शिल्पशास्त्रसार, (४०० ई.),
"संस्थाप्यमृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुशोभितम्।
छादयेच्छिखिग्रीवेण चार्द्राभि: काष्ठपांसुभि:।।१।।
दस्तालोष्ठो निधातव्य: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मैत्रावरुण संज्ञितम्।।२।।
अनेन जल भंगोऽस्ति प्राणोदानेषु वायुषु।
एवं शतानां कुम्भानां संयोग: कार्यकृत् स्मृत:।।३।।
वायुबंधक वस्त्रेण निबद्धो यान मस्तके।
उदान: स्वलघुत्वेन विभर्त्याकाशयानकम्।।४।।"
5
Rajam or Saha and Shrivastava or Preston, Liquification of the Gases-Heat and Thermodynamics(१९६५),
"Every solid or liquid can be made into a gas, and gases can be made liquid or solid. At the surface of the earth, at ordinary pressures, temperatures, Air is a gas, in other circumstances, however, it is liquid, and there is a considerable industry which liquifies air by cooling it."
6
Physics-Physical Science Study Committee, Boston, II
7
Satya Prakash, Founders of Science or Dr. Umesh Mishra, Connection of Matter.
8
प्रशस्तपाद, वैशेषिक भाष्य,परिमाण प्रकरण (२०० ई. पू.),
"नित्यमाकाशकाल दिगात्मसु परममहत्त्वम् अनित्यं
त्र्यणुकादावेव। तत्रेश्वरबुद्धिमपेक्ष्योत्पन्ना परमाणुद्वयणुकेषु
बहुत्वसंख्या तैरारब्धे कार्यद्रव्ये त्र्यणुकादिलक्षणे
रूपाद्युत्पत्तिसमकालं महत्त्वं दीर्घत्वं च करोति।।"
9
प्रशस्तपाद, वैशेषिक भाष्य, पाकजप्रकरण (२०० ई. पू.),
"पार्थिवपरमाणुरूपादीनां पाकजोत्पत्तिविधानम्। घटादेरामद्रव्यस्याग्निनासम्बद्धस्याग्न्यभिघातान्नोदनाद्वा तदारम्भकेष्वणुषु कर्माण्युत्पद्यन्ते तेभ्यो विभागा: विभागेभ्य: संयोगविनाशा: संयोगविनाशभ्यश्च कार्यद्रव्यं विनश्यति तस्मिन् विनष्टे स्वतंत्रेषु परमाणुष्वग्निसंयोगादौष्ण्यापेक्षाच्छयामादीनां विनाश: पुनरन्यस्मादग्निसंयोगादौष्ण्यापेक्षात् पाकजा जायन्ते। तदनन्तरंभोगिनामदृष्टापेक्षादात्माणुसंयोगादुत्पन्नपाकजेष्वणुषु क्रमोत्पत्तौ तेषां परस्पर संयोगात् द्वयणुकादिक्रमेण कार्यद्रव्यमुत्पद्यते।।"
10
Bahl and Tuli,Essentials of Physical Chemistry, (page १४५),
Tyndall Effect : A beam of light entering a dark room lights up the dust particles floating in the air...similarly, when a strong beam of light is concentrated on a colloidal solution, the path of the beam is illuminated by a bluish light and becomes visible when observed from the side.
11
प्रशस्तपाद, वैशेषिक भाष्य,
परिमाण निरूपणे (२०० ई. पू.),
"जालान्तर्गते भानो यत्सूक्ष्मं दृश्यते रज:।
तस्यषष्ठितमोभाग: परमाणु: प्रकीर्तित:।।"
12
Physical Science Study Committee, Bosten, Physics, page १०४.
"As a result the prediction of Einstien that radiant energy is mass, has been clearly verified, we know of fascinating processes (on the atomic scale) in which १००% of the mass changes from particles of matter into radiation. Then, unless we trap the radiation it will escape from the balance, but only in nuclear laboratories and in the natural nuclear engines in the centres of stars, do changes go in, in which mass is noticably converted into radiant form. For everything else we can ignore the minute changes in the mass on the balance. This means that the observed conservation of matter in chemical changes, the quanitity of matter stays essentially the same.
The observation that chemical changes leave the quantity of matter unchanged strongly suggests that the chemical change is process of rearranging component parts."
13
डॉ० नारायण गोपाल डोंगरे,
वैशेषिक सिद्धान्तानां गणितीय पद्धत्या विमर्श: (१९९५),
"आसमन्तात् काषते इति आकाश:, कृश् दीप्तौ इति धातो:।"
14
यजुर्आरण्यके, ब्रह्मवल्ली-द्वितीयप्रश्न,
प्रथमोनुवाक:। (२५०० ई. पू.)
"तस्माद् वा तस्मादात्माआकाशस्संभूत:। आकाशाद्वायु:। वायोरग्नि:। अग्नेराप:। अद्भ्य: पृथ्वी।"
15
प्रशस्तपाद, प्रशस्तपाद भाष्य, सृष्टिसंहारप्रकरण, (६०० ई. पू.)
"तत: पुन: प्राणिनां भोगभूतये महेश्वर सिसृक्षानन्तरं सर्वात्मगत वृत्तिलब्धादृष्टापेक्षेभ्यस्तत्संयोगेभ्य: पवनपरमाणुषु कर्मौत्पत्तौ तेषां परस्परसंयोगेभ्यो द्वयणुकादिप्रक्रमेण महान्वायु: समुत्पन्नो नभसि दोधूयमानस्तिष्ठति।
तदनन्तरं तस्मिन्नेव वायावाप्येभ्य: परमाणुभयस्तेनैव क्रमेण महान् सलिलनिधिरुत्पन्न: पोप्लूयमानस्तिष्ठति।
तदनन्तरं तस्मिन्नेव पार्थिवेभ्य: परमाणुभ्यो महापृथिवी संहनाऽवतिष्ठते।
तदनन्तरं तस्मिन्नेव महोदधौ तेजसेभ्योऽणुभ्यो द्व्यणुकादिप्रक्रमेणोत्पन्नो महांस्तेजोराशि: केनचिदनभिभूतत्वाद्देदीप्यमानस्तिष्ठति"
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